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दे॒वानां॒ चक्षु॑: सु॒भगा॒ वह॑न्ती श्वे॒तं नय॑न्ती सु॒दृशी॑क॒मश्व॑म् । उ॒षा अ॑दर्शि र॒श्मिभि॒र्व्य॑क्ता चि॒त्राम॑घा॒ विश्व॒मनु॒ प्रभू॑ता ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

devānāṁ cakṣuḥ subhagā vahantī śvetaṁ nayantī sudṛśīkam aśvam | uṣā adarśi raśmibhir vyaktā citrāmaghā viśvam anu prabhūtā ||

पद पाठ

दे॒वाना॑म् । चक्षुः॑ । सु॒ऽभगा॑ । वह॑न्ती । श्वे॒तम् । नय॑न्ती । सु॒ऽदृशी॑कम् । अश्व॑म् । उ॒षाः । अ॒द॒र्शि॒ । र॒श्मिऽभिः । विऽअ॑क्ता । चि॒त्रऽम॑घा । विश्व॑म् । अनु॑ । प्रऽभू॑ता ॥ ७.७७.३

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:77» मन्त्र:3 | अष्टक:5» अध्याय:5» वर्ग:24» मन्त्र:3 | मण्डल:7» अनुवाक:5» मन्त्र:3


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आर्यमुनि

अब उस दिव्यशक्ति को सम्पूर्ण विश्व का आधार कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (देवानां चक्षुः) सब दिव्य शक्तियों की प्रकाशक (सुभगा) सर्वैश्वर्य्यसम्पन्न (श्वेतं अश्वं वहन्ती) श्वेतवर्ण के गतिशील सूर्य्य को चलानेवाली (सुदृशीकं) सर्वोपरि दर्शनीय (अदर्शि रश्मिभिः नयन्ती) नहीं देखे जानेवाली रश्मियों की चालिका (व्यक्ता) सब में विभक्त (चित्रामघा) नाना प्रकार के ऐश्वर्य्य से सम्पन्न (उषाः) परमात्मरूपशक्ति (विश्वं) सम्पूर्ण संसार को (अनु) आधेयरूप से आश्रय करके (प्रभूता) विस्तृतरूप से विराजमान हो रही है ॥३॥
भावार्थभाषाः - जो दिव्यशक्ति सूर्य्यादि सब तेजों का चक्षुरूप, सब प्रकाशक ज्योतियों को प्रकाश देनेवाली, गतिशील सूर्य्य चन्द्रादिकों को चलानेवाली और जो सम्पूर्ण संसार को आश्रय करके स्थित हो रही है, वही दिव्य शक्ति सम्पूर्ण विश्व का अधिष्ठान है ॥ या यों कहो कि सम्पूर्ण दिव्य शक्तियों की प्रकाशक एकमात्र परमात्मज्योति ही है। उसी के आश्रित हुए सब ब्रह्माण्ड नियमानुसार चलते और उसी के शासन में सब पदार्थ भ्रमण कर रहे हैं, जैसा कि अन्यत्र भी कहा है कि “एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि सूर्याचन्द्रमसौ विधृतौ तिष्ठतः० ॥” हे गार्गि ! उसी अक्षर परमात्मा की आज्ञा में सूर्य्य-चन्द्रमादि सब ब्रह्माण्ड स्थिर हैं और वही सबको धारण कर रहा है। इसी भाव को “तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्तात्० ॥” इस मन्त्र में भी प्रतिपादन किया है कि उसी परमात्मज्योति से सब ब्रह्माण्ड प्रकाशित होते हैं, अतएव सिद्ध है कि उषःकाल में उसी के उपासन से पुरुष सद्गति को प्राप्त हो सकता है, अन्यथा नहीं ॥३॥
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आर्यमुनि

अथ तामेव दिव्यशक्तिं सकलजगदाधारमन्वाचष्टे।

पदार्थान्वयभाषाः - (देवानां चक्षुः) सर्वासां दिव्यशक्तीनां प्रकाशिका (सुभगा)   सर्वैश्वर्यसम्पन्ना (श्वेतम् अश्वम् वहन्ती) श्वेतवर्णस्य गमनशीलस्य सूर्यस्य गमयित्री (सुदृशीकम्) सर्वातिरिक्तदर्शना (अदर्शि रश्मिभिः नयन्ती) अदृश्यरश्मीनाञ्चालिका (व्यक्ता) सर्वत्र विभक्ता (चित्रामघा) नानाविधैश्वर्यसम्पन्ना (उषाः) परमात्मरूपा शक्तिः (विश्वम्) सकलं जगत् (अनु) आधेयरूपेणाश्रित्य (प्रभूता) सविस्तारं विराजते ॥३॥